आज के भारत में स्कूल की घंटी बजने के बाद भी बच्चों की पढ़ाई खत्म नहीं हो रही। बल्कि असली पढ़ाई तो तब शुरू होती है, जब छात्र स्कूल से बाहर निकलकर सीधे कोचिंग सेंटरों की ओर चले जाते हैं। केंद्र सरकार के हालिया सीएमएस (कॉम्प्रेहेंसिव मॉड्यूलर सर्वे) ने शिक्षा व्यवस्था की जो तस्वीर पेश की है, वो एक सवाल उठाती है—क्या एजुकेशन सिस्टम में स्कूल शब्द महज एक खानापूर्ति बनकर रह जायेगा?
इस सर्वे के मुताबिक, देश में हर तीसरा स्कूली छात्र निजी कोचिंग का सहारा ले रहा है। यह संख्या पूरे देश में 27% है, लेकिन शहरी इलाकों में यह चलन कहीं ज्यादा आम हो चुका है। यहां तक कि शहरों में 30.7% छात्र कोचिंग क्लासेज में पढ़ रहे हैं, जबकि गांवों में यह आंकड़ा भी कम नहीं—25.5% बच्चे कोचिंग का रुख कर रहे हैं। स्कूल खत्म होने के बाद भी पढ़ाई का बोझ बच्चों के सिर से नहीं उतरता, बल्कि निजी कोचिंग की भागदौड़ और खर्च इसमें और इजाफा कर देता है।
सर्वे यह भी बताता है कि भारत की शिक्षा व्यवस्था में सरकारी स्कूल अब भी बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। देशभर में 55.9% स्कूली बच्चे सरकारी विद्यालयों में पढ़ते हैं। गांवों में तो यह संख्या और भी ज्यादा है—66% बच्चे सरकारी स्कूलों में नामांकित हैं, जबकि शहरों में यह घटकर 30.1% रह जाती है। इसके उलट, निजी (गैर-सहायता प्राप्त) स्कूलों में देशभर के 31.9% छात्र पढ़ाई कर रहे हैं। खास बात यह है कि शहरों में 70% छात्र निजी स्कूलों का रुख कर चुके हैं। लेकिन चाहे सरकारी स्कूल हो या प्राइवेट, कोचिंग अब हर जगह पढ़ाई का 'जरूरी' हिस्सा बनता जा रहा है।
सबसे हैरानी की बात यह है कि कोचिंग पर खर्च भी आसमान छू रहा है। शहरी इलाकों में एक छात्र के लिए सालभर की कोचिंग का औसत खर्च करीब 3,988 रुपए है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह खर्च 1,793 रुपए है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ी कक्षा में जाता है, खर्च भी तेजी से बढ़ता है। 11वीं-12वीं कक्षा के एक शहरी छात्र की कोचिंग पर औसतन 9,950 रुपए खर्च होते हैं, जबकि गांवों में यह खर्च 4,548 रुपए तक पहुंचता है। पूरे देश में अगर देखा जाए, तो प्ले स्कूल जैसे पूर्व-प्राथमिक स्तर पर कोचिंग खर्च जहां 525 रुपए है, वहीं 12वीं तक आते-आते यह 6,384 रुपए तक हो जाता है।
अब सवाल उठता है—ये सारा खर्च कौन उठा रहा है? तो इसका जवाब भी रिपोर्ट में है। 95% छात्रों ने बताया कि उनकी पढ़ाई का सारा खर्च उनके परिवार के अन्य सदस्य उठाते हैं। चाहे वो किताबें हों, स्कूल फीस हो या कोचिंग की भारी फीस—हर जिम्मेदारी घरवालों पर है। सिर्फ 1.2% छात्रों ने कहा कि उन्हें सरकारी छात्रवृत्तियों से मदद मिलती है।
शहरी और ग्रामीण छात्रों के बीच शिक्षा पर होने वाले खर्च में भी बड़ा फर्क सामने आया है। शहरों में एक छात्र के पाठ्यक्रम शुल्क पर औसतन 15,143 रुपए खर्च होते हैं, जबकि ग्रामीण इलाकों में यह खर्च सिर्फ 3,979 रुपए है। इसी तरह, किताबें, स्टेशनरी, वर्दी और परिवहन जैसे खर्च भी शहरों में कहीं ज्यादा हैं।
गौर करने वाली बात यह है कि इस बार के सर्वे में पहले से थोड़ा अलग नजरिया अपनाया गया है। उदाहरण के लिए, इस बार आंगनबाड़ी केंद्रों को पूर्व-प्राथमिक शिक्षा की श्रेणी में रखा गया है और स्कूली शिक्षा व कोचिंग खर्च को अलग-अलग गिनती में लिया गया है। इससे शिक्षा व्यवस्था की वास्तविक तस्वीर और स्पष्ट हुई है।
कुल मिलाकर, यह सर्वे केवल आंकड़े नहीं बताता, बल्कि यह दर्शाता है कि आज हमारे देश की शिक्षा प्रणाली पर निजी कोचिंग की पकड़ बहुत मजबूत हो चली है। चाहे सरकारी स्कूल हो या निजी शैक्षिक संस्थान, छात्र अब सिर्फ स्कूल की पढ़ाई से संतुष्ट नहीं हैं। यह रुझान हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हमारे स्कूल गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का भरोसेमंद जरिया नहीं रहे? और क्या शिक्षा का मतलब अब केवल खर्च और प्रतियोगिता बनकर रह गया है?
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